25 December 2013

सपनों या हकीकत

झूठे ही थे सपने,पर खुषियो के चंद लम्हे लाते हैं ये जब तुम होती हो इनमें,माॅ कहती हैं कि सुबह के सपने सच हो जाते हैं, किस पर यकीन किया जायें, सपनों पर या हकीकत पर। आज भी तुम ऐसी ही थी जैसा मैंने तुम्हे अंतिम बार देखा था, तुम्हे काफी तकलीफ होती होगी इतनी दूर से आने में षायद यू ही तो तुम रोज नहीं आती हो। तेज होते षोर से नींद टूट जाती हैं, और न जाने तुम कहा कौन सी दुनिया में चली जाती हो, एक बार अलविदा कहने के लिए मैं निर्जीव सा,षून्यता में खोया,फिर सो जाने की नाकाम कोषिष करता हॅू पर एक झपकी सी आई पर तुम नहीं।
बाहर से आते षोरगुल पर खीजकर चिल्लाता हॅू फिर सोचता हॅू क्या फायदा खो चुकी हो अब तुम, अतीत की उन घडियों को सोचता हूॅ जहाॅ तुम भी थी और मैं भी, पर आज जागने का मन नहीं करता सो जाना चाहता हू मन भी तो कह रहा है अभी तुम दूर नहीं पहुची होगी, माॅ द्वारा गाये जा रहे भजनो की ध्वनि सुनाई पड रही हैं, मन किया कि मैं भी तुम्हे मांग लू उससे, मन नहीं माना अपनी उलझनों में उनको धर्मसंकट में क्यो डालू तुम्हे मांग कर, और तुम्हारी सलामती की दुआ कर उनको याद किया, वैसे
अब विष्वास कम होता जा रहा है उनमें जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा हैं, लेकिन दुआ मांग कर  कुछ सकून मिलता है जैसे तुम्हारी यादो में खो जाने और कुछ आंसू बहा जाने के बाद। सबकुछ पहले जैसा ही हैं आज भी वहीं षोरगुल, वही सूर्य की किरणे, माॅ का आरती करना, बस बढ़ा हैं तो एक खालीपन, जिसको भरने की नाकाष कोषिष में पिछले 3 सालो की तरह आज भी कर रहा हॅू.............
सोचता हॅू कि एक बार फिर
इन उजाड़ मकानो को  बनाया जाये
तुम्हारी तरहाॅ किस और को इसमें बसाया जायें
हर कोषिष हुई असफल यहा जब
खंडरो में ही फिर रह लिया जायें

No comments:

Post a Comment